स्त्री – पुरुष भिन्न या अभिन्न : पुत्री – पुत्र समानता

स्त्री – पुरुष भिन्न या अभिन्न : पुत्री – पुत्र समानता

पितृ पक्ष विशेष :

अक्सर ही मातृ शक्ति द्वारा एक प्रश्न किया जाता है कि क्या 'तर्पण' पुत्र संतान के लिए होता है, स्त्री संतान के लिये नहीं?

उसका मुख्य कारण है पुत्र द्वारा माता – पिता के लिए जो धार्मिक अनुष्ठान होते हैं।


पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मातपितरं त्रायते सुत: ।
तस्मात पुत्र इति प्रोक्त: स्वयमेव स्वयम्भुवा ।।
                                                                – गरुण पुराण 7/9 (गीता प्रेस)

अर्थात जो पितरो की ‘पुम’ नामक नरक से रक्षा करता है।

अतः स्वयं भगवान ब्रह्मा ने ही उसे पुत्र नाम से कहा है।


जो धर्म – अर्थ – काम – मोक्ष की प्राप्ति करा दे वह पुत्र है।

जो माता – पिता के शुभ के लिये अपने प्राणों की चिंता न करे वह पुत्र है।

पुत्र का धार्मिक महत्व है क्योंकि ज्येष्ठ होने का अधिकार सिर्फ सबसे बड़े पुत्र को मिलता है।

"प्रथमो पुत्र: धर्मतो जाया"

प्रथम पुत्र धर्म के लिए जन्म लेता है। 


बाकी कितनी भी संतान हो सब ‘काम’ से उत्पन्न मानी गयी हैं। 

पत्नी को पति के धार्मिक कर्म का अधिकार है पुत्री को नहीं।

यदि धर्म की बात की जाय तब पितरों हेतु सीधे तर्पण का विधान पुत्र के माध्यम से है।

यह मातृ शक्ति के अपमान की चेष्टा नहीं है बल्कि उसके धार्मिक नियम हैं।

नारी स्वयं यज्ञ वेदी है इस लिए उसे यज्ञ आहुति करने से रोका गया है। 

ब्रह्मसूत्र में “पंचम आहुति” इसे कहा गया है जब संभोग के माध्यम से पुरुष योनि में वीर्य की स्थापना करता है।

यद्धपि शास्त्र स्त्री – पुरुष को पूरक कहते हैं जिसमें प्रतिस्पर्धा नहीं है बल्कि समागम, प्रेम और माधुर्य है।

समस्या है आधुनिक घोर समानता की जहाँ नारी पुरुष ही बन जाना चाहती है।

मुंशी प्रेमचंद कहते है कि, 

“जब पुरुष में नारी के गुण आ जाएं तो वह देवत्व को प्राप्त कर लेता है लेकिन जिस नारी में पुरुष के गुण आ जाएं वह कुल्टा हो जाती है

दौड़ पुरुष बनने की नहीं होनी चाहिए बल्कि उसे भान होना चाहिए कि,

"वह पुरुषों की जननी है।"


Comments

Popular posts from this blog

पांडवों की मशाल

इंग्लैंड की नदी में देवनागरी लिपि के शिलालेख

सुविचार