श्री गणेश अष्टावतार

श्री गणेश अष्टावतार


भगवान गणेश के आठ अवतारों का उल्लेख मुदगल पुराण में मिलता है, एक उपपुराण जो भगवान गणेश को विशेष रूप से समर्पित है। भगवान प्रत्येक रूप में मनुष्यों की 8 कमजोरियों को हराते हैं। ये उद्दंडता, अहंकार, इच्छा, क्रोध, लालच, भ्रम, अविश्वास और ईर्ष्या हैं।


१. वक्रतुंड:

वक्रतुण्डावताराश्च देहानां ब्रह्मधारकः |
मत्सरासुरहन्ता स सिंहवाहनगः स्मृतः ||

भगवान् श्री गणेश का वक्रतुण्ड अवतार ब्रह्म स्वरुप से सम्पूर्ण शरीरों को धारण करने वाला है, मत्सर असुर का वध करने वाला तथा सिंह वाहन पर चलने वाला है।


         भगवान् श्री गणेश का पहला अवतार वक्रतुण्ड का है । इसकी कथा इस प्रकार है की एक बार देवराज इन्द्र के प्रमाद से मत्सरासुर का जन्म हुआ। उसने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य से भगवान् शिव के पंचाक्षरी मंत्र (ॐ नमः शिवाय) की दीक्षा प्राप्त करके भगवान शिव की कठोर तपस्या की । भगवान् शिव ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे अभय होने का वरदान दिया । वरदान प्राप्त करके जब मत्सरासुर घर लौटा तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने उसे दैत्यराज नियुक्त कर दिया ।

          मत्सरासुर ने दैत्यों का राजा बनते ही पद शक्ति के मद में चूर होकर प्रथ्वी पर आक्रमण कर दिया । समस्त राजा मत्सरासुर के अधीन हो गये तथा पृथ्वी पर मत्सरासुर का शासन हो गया । मत्सरासुर ने पृथ्वी के बाद पाताल और स्वर्गलोक पर भी आक्रमण करके समस्त देवो को पराजित करके अपना शासन स्थापित कर लिया |

समस्त पराजित देवता गण ब्रह्मा जी और विष्णु जी को साथ लेकर भगवान शिव की शरण में पहुचे और मत्सरासुर के अत्याचारों की गाथा सुनाई । परन्तु अहंकारी मत्सरासुर ने भगवान् शिव के कैलाश पर भी आक्रमण कर दिया मत्सरासुर और शिव जी में घोर युद्ध हुआ परन्तु शिव जी भी मत्सरासुर से समक्ष न टिक सके और उन्हें भी दैत्यराज ने अपने पाश में बाँध लिया । अब दुखी देवताओं के पास दैत्यराज के विनाश का कोई मार्ग नहीं बचा उसी समय भगवान् दत्तात्रेय वहां पहुँच गये और उन्होंने देवताओं को अक वक्रतुण्ड के एकाक्षरी मंत्र (गं) का उपदेश दिया । समस्त देवतागण भगवान् वक्रतुण्ड के उस अकाक्षरी मंत्र का जाप करने लगे । समस्त देवताओं की आराधना से संतुष्ट होकर भगवान् वक्रतुंड प्रकट हुए और समस्त देवताओं से मत्सरासुर का अहंकार तोड़ने और उसका विनाश करने का वरदान दिया ।

      भगवान् वक्रतुंड ने अपने गणों के साथ मत्सरासुर के नगरो पर आक्रमण कर दिया । 5 दिनों तक भयंकर युद्ध चला इस युद्ध में मत्सरासुर के दोनों पुत्र “सुन्दरप्रिय” और “विषयप्रिय” दोनों मारे गए । इससे मत्सरासुर अधीर हो उठा और उसने युद्धभूमि में आकर भगवान् वक्रतुंड को बहुत अपशब्द कहे । भगवान् वक्रतुंड ने मत्सरासुर से कहा की तुझे अगर अपने प्राण प्रिय है तो शास्त्र त्यागकर मेरी शरण में आजा अन्यथा तेरी मृत्यु निश्चित है ।

      वक्रतुंड का क्रोध रूप देख मत्सरासुर मारे भय के कापने लगा और उसकी सारी शक्ति क्षीण हो गई और विनयपूर्वक वक्रतुंड की स्तुति करने लगा इससे दयामय भगवान् वक्रतुंड प्रसन्न हुए और मत्सरासुर को अभयदान देकर अपनी भक्ति का वरदान किया तथा पाताल जाकर शांत जीवन बिताने का आदेश दिया । मत्सरासुर से निश्चित होकर देवगण वक्रतुण्ड की स्तुति करने लगे । देवतओं को स्वतन्त्र कर भगवान वक्रतुण्ड ने उन्हें भी अपनी भक्ति प्रदान की।

२. एकदंत:


एकदन्तावतारौ वै देहिनां ब्रह्मधारकः |
मदासुरस्य हन्ता स आखुवाहनगः स्मृतः ||

श्री गणेश का एकदन्त अवतार देहि ब्रह्म का धारक है, यह मदासूर का वध करने वाला है तथा मूषक वाहन पर चलने वाला है।

           भगवान् श्री गणेश का दूसरा अवतार एकदन्त का है । मदासुर नाम का एक बलवान और पराक्रमी दैत्य था वह च्यवन ऋषि का पुत्र था एक बार वह अपने पिता से आज्ञा लेकर दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पास गया और समस्त ब्रह्माण्ड का स्वामी बनने की इच्छा प्रकट की शुक्राचा र्य ने मदासुर को अपना शिष्य बना लिया और शक्ति के एकाक्षरी मंत्र की विधि पूर्वक मदासुर को दीक्षा दी । मदासुर अपने गुरु से दीक्षा लेकर वन में चला गया और काफी वर्षों तक कठोर तपस्या करता रहा उसके शरीर में चींटीयों ने अपने घर बना लिए, दीमक ने अपनी बांबीयां बना ली, उसके चारो ओर वृक्ष उग आये । ऐसी तपस्या से माँ शक्ति प्रसन्न हुई और उसे निरोगी रहने तथा समस्त ब्रह्माण्ड का राज्य प्राप्त करने का वरदान दिया।

        मदासुर ने पहले सम्पूर्ण धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित किया । फिर स्वर्गपर चढ़ाई की । इन्द्रादि देवताओं को जीत कर वह स्वर्ग का भी शासक बन बैठा । उसने प्रमदासुर की कन्या सालसा से विवाह किया । उससे उसे तीन पुत्र हुए । उसने शूलपाणी भगवान शिव को भी पराजित कर दिया । सर्वत्र असुरों का क्रूरतम शासन चलने लगा । पृथ्वी पर समस्त धर्म - कर्म लुप्त हो गये । देवताओं एंव मुनियों के दू:ख की सीमा न रही । सर्वत्र हाहाकार मच गया ।

     चिन्तित देवता सनत्कुमार के पास गये तथा उनसे उस असुर के विनाश एंव धर्म-स्थापना का उपाय पूछा । सनत्कुमार ने कहा -’देवगण आप लोग श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान एकदन्त की उपासना करें । वे संतुष्ट होकर अवश्य ही आप लोगों का मनोरथ पूर्ण करेंगे ‘। महर्षि के उपदेशानुसार देवगण एकदन्त की उपासना करने लगे । तपस्या के सौ वर्ष पूरे होने पर मूषक वाहन पर भगवान एकदन्त प्रकट हुए तथा वर माँगने के लिया कहा । देवताओं ने निवेदन किया - प्रभो ! मदासुर के शासन में देवगण स्थानभ्रष्ट और मुनिगण कर्मभ्रष्ट हो गये है । आप हमें इस कष्ट से मुक्ति दिलाकर अपनी भक्ति प्रदान करे ।

     उधर देवर्षि ने मदासुर को सुचना दी की भगवान एकदन्त ने देवताओं को वरदान दिया है । अब वे तुम्हारा प्राण - हरण करने के लिये तुमसे युद्ध करना चाहते है । मदासुर अत्यन्त कुपित होकर अपनी विशाल सेना के साथ एकदन्त से युद्ध करने चला । भगवान एकदन्त रास्ते में ही प्रकट हो गये । राक्षसों ने देखा की भगवान एकदन्त सामने से चले आ रहे हैं । वह मूषक पर सवार हैं । उनकी आकृति अत्यन्त भयानक है । उनके हाथों मैं परशु, पाश आदि आयुध है । उन्होंने असुरों से कहा की तुम अपने स्वामी से कह दो यदि वह जीवित रहना चाहता है तो देवताओं से द्वेष छोड़ दे । उनका राज्य उन्हें वापस कर दे । अगर वह ऐसा नहीं करता है तो मैं निश्चिंत ही उसका वध करूँगा । महाक्रूर मदासुर युद्ध के लिए तैयार हो गया जैसे -ही उसने अपने धनुष पर बाण चढ़ाना चाहा की भगवान एकदन्त का तीव्र परशु उसे लगा और वह बेहोश होकर गिर गया ।

      बेहोशी टूटने पर मदासुर समझ गया की यह सर्वसमर्थ परमात्मा ही है । उसने हाथ जोड़कर स्तुति करते हुए कहा की प्रभो ! आप मुझे क्षमा कर अपनी द्रढ़ भक्ति प्रदान करें । एकदन्त ने प्रसत्र होकर कहा कि जहाँ मेरी पूजा आराधना हो,वहाँ तुम कभी मत जाना । आज से तुम पाताल में रहोगे । देवता भी प्रसत्र होकर एकदन्त की स्तुति करके अपने लोक चले गये।


३. महोदर:


महोदर इति ख्यातो ज्ञानब्रह्मप्रकाशकः ।
मोहासुरस्य शत्रुर्वै आखुवाहनगः स्मृतः ||

भगवान् श्री गणेश का महोदर अवतार ब्रह्म ज्ञान का प्रकाशक है, यह मोहासूर का वध करने वाला है तथा मूषक वाहन पर चलने वाला है।

 दैत्यगुरु शुक्राचार्य का एक शिष्य था जिसका नाम मोहासुर था । अपने गुरु के आदेश से मोहासुर ने भगवान् सूर्य की कठोर तपस्या की भगवान् सूर्य प्रसन्न हो गए तथा मोहासुर को सर्वत्र विजय का वरदान दे दिया । वरदान पाकर मोहासुर अपने गुरु के पास गया । गुरु ने मोहासुर को दैत्यराज घोषित कर दिया और उसका राज्याभिषेक कर दिया । मोहसुर ने अपने बल, पराक्रम और वरदान के बल पर तीनो लोकों को जीत लिया ।

         समस्त देवी, देवता, ऋषि, मुनि, सब मोहासुर के भय से छुप गये । वर्णाश्रम -धर्म, सत्कर्म, यज्ञ, तप आदि सब नष्ट हो गये । मोहासुर तीनो लोको पर राज करने लगा । परन्तु दुखी और हारे हुए देवी, देवता, ऋषि, मुनि, सब भगवान् सूर्य के पास गए तथा इस भयानक विपत्ति से निकलने का उपाय पूंछा । भगवान् सूर्य ने सभी देवी देवताओं को श्री गणेश का एकाक्षरी मंत्र दिया और श्री गणेश को प्रसन्न करने की प्रेरणा दी । समस्त देवी देवता श्री गणेश को पूर्ण भक्ति भाव से प्रसन्न करने के लिए उपासना करने लगे ।

        उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान महोदर प्रकट हुए । देवताओं और मुनियों ने अत्यंत आर्त होकर महोदर की स्तुति की । भगवान महोदर ने कहा की मैं मोहासुर का वध करूँगा । आप लोग निश्चिंत हो जाये ऐसा कह कर मूषक पर सवार भगवान महोदर मोहासुर से युद्ध करने के लिए चल दिये। यह समाचार देवर्षि नारद ने मोहासुर को दिया तथा अनंत पराक्रमी समर्थ महोदर का स्वरूप भी उसे समझाया ।

         दैत्यगुरु शुक्राचर्या ने भी उसे भगवान महोदरी की शरण लेने का शुभ परामर्श दिया । उसी समय भगवान महोदर का दूत बनकर भगवान विष्णु मोहासुर के पास गये । उन्होंने मोहसुर से कहा -’तुम्हें अनन्त शक्ति - सम्पत्र भगवान महोदर से मित्रता कर लेनी चाहिये । यदि तुम महोदर की शरण -ग्रहण कर देवताओं, मुनियों तथा ब्राह्मणों को धर्म पूर्वक जीवन बिताने में व्यवधान न पैदा करने का वचन दो तो दयामय प्रभु तुम्हें क्षमा कर देंगे । यदि तुम ऐसा नहीं करते हो तो रणभूमि में तुम्हारी रक्षा असम्भव है ।

     मोहासुर का अहंकार नष्ट हो गया । उसने भगवान विष्णु से निवेदन किया । आप परम प्रभो भगवान महोदर को मेरे नगर में लाकर उनके दुर्लभ-दर्शन का अवसर प्रदान करें । भगवान महोदर ने नगर में पदार्पण किया । मोहासुर ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किय। दैत्य युवतियों ने पुष्प वर्षा की । मोहासुर ने भगवान महोदर की श्रद्धा -भक्तिपूर्वक पूजा की। कंठ से स्तुति करते हुए उसने कहा की प्रभो ! अज्ञान -वश मेरे द्वारा जो अपराध हुआ हो उसके लिये मुझे क्षमा करें । मैं आपके प्रत्येक आदेश का -पालन करने का वचन देता हूँ । अब मैं देवताओं और मुनियों के निकट भूलकर भी नहीं जाऊंगा । उनके किसी भी धर्माचरण में विघ्न नहीं पैदा करूँगा ।

     सहज कृपालु भगवान महोदर मोहासुर की दीनतापर प्रसन हो गये । उसे अपनी भक्ति प्रदान कर दी । मोहासुर के शान्त होने से देवता, ऋषि, ब्राह्मण तथा धर्म परायण स्त्री-पुरष सभी सुखी हो गये । देवता और मुनि महाप्रभु महोदर की स्तुति एवं जय जय कार करने लगे।

४. गजानन:


गजाननः स विज्ञेयः सांख्येभ्यः सिद्धिदायकः ।
लोभासुरप्रहर्ता वै आखुगश्च प्रकीर्तिताः ||

भगवान् श्री गणेश का गजानन अवतार सांख्यब्रह्म का धारक है, यह सांख्य योगिओं को सिद्धि देने वाला माना जाता है यह लोभासूर का वध करने वाला तथा मूषक वाहन पर चलने वाला कहा जाता है।

एक बार भगवान् कुबेर भगवान् शिव और माँ पार्वती के दर्शन हेतु कैलाश गए वहां कुबेर माँ के सौंदर्य को अपलक निहारते चले गए इससे माता को बहुत क्रोध आया माता को क्रोधित देखकर कुबेर भय के मारे कांपने लगे और उसी वक्त कुबेर के शरीर से एक दैत्य लोभासुर उत्पन्न हुआ । लोभासुर दैत्य था वह अपने गुरु शुक्राचार्य के पास गया और उनसे दैत्यगुरु से दीक्षा प्रदान करने का आग्रह किया शुक्राचार्य ने लोभासुर को अपना शिष्य बना लिया और भगवान् शिव के पंचाक्षरी मंत्र की दीक्षा देकर भगवान् शिव की कृपा प्राप्त करने का आदेश दिया ।

निर्जन वन में जाकर असुर ने भस्म धारण करके भगवान शिव का ध्यान करते हुए पंचाक्षारी मन्त्र का जप करने लगा । वह अन्न -जल का त्याग कर भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिये घोर ताप करने लगा ।

       उसने सहश्रों वर्षों तक अखण्ड तप किया । उसकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए ।
लोभासुर को भोले भगवान शंकर ने वर देकर उसे तीनों लोंकों में निर्भय कर दिया । भगवान शिव के अमोघ वर से निर्भय लोभासुर ने दैत्यों की विशाल सेना एकत्र कि। उन असुरों के सहयोग से लोभासुर ने पहले पृथ्वी के समस्त राजाओं को जीत लिया । फिर स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया । इन्द्र को पराजित कर उसने अमरावती पर अधिकार कर लिया । पराजित होकर इन्द्र भगवान विष्णु के पास गये तथा उनसे अपनी व्यथा सुनायी ।

       भगवान विष्णु असुरों का संहार कने के लिये अपने गरुड़ वाहन पर चढ़कर आये । भयानक संग्राम हुआ । भगवान शंकर के वर से लोभासुर के सामने उनको भी पराजय का मुँह देखना पड़ा । विष्णु तथा अन्य देवताओं के रक्षक महादेव हैं - यह सोच कर लोभासुर ने अपना दूत शिव के पास भेजा । दूत ने कहा ‘आप परम पराक्रमी लोभासुर से युद्ध कीजिये या पराजय स्वीकार कर कैलाश को छोड़ दीजिये । भगवान शंकर ने अपने द्वारा दिये वरदान को स्मरण कर कैलाश को छोड़ दिया । लोभासुर के आनन्द की सीमा न रही ।

       उसने राज्य में समस्त धर्म -कर्म समाप्त हो गये पापों का नग्न नृत्य होने लग। ब्राह्मण और ऋषि - मुनि यातना सहने लगे।

रैभ्य मुनि के कहने पर देवताओं ने गणेश - उपसना कि। प्रसन्न होकर गजानन ने लोभासुर के अत्याचार से देवताओं को मुक्ति दिलाने का वचन दिया ।

       गजानन ने भगवान शिव को लोभासुर के समीप भेजा । वहाँ शिव ने लोभासुर से साफ शब्दों में गजानन का संदेश सुनाया । ‘तुम गजानन की शरण - ग्रहण कर शांतिपूर्ण जीवन बिताओ, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ । उसके गुरु शुक्राचार्य ने भी भगवान गजानन की महिमा बताकर गजानन की शरण लेना कल्याण कर बतलाया । लोभासुर ने गणेश - तत्व को समझ लिया । फिर तो वह महाप्रभु के चरणों की वंदना करने लगा । शरणागतवत्सल गजानन ने उसे क्षमा कर पाताल भेज दिय। देवता और मुनि सुखी होकर गजानन का गुणगान करने लगे ।

५. लम्बोदर:


लम्बोदरावतारो वै क्रोधासुर निबर्हणः ।
शक्तिब्रह्माखुगः सद यत तस्य धारक उच्यते ||

भगवान् श्री गणेश का लम्बोदर अवतार सत्स्वरूप तथा ब्रह्मशक्ति का धारक है, भगवान लम्बोदर को क्रोधासुर का वध करने वाला तथा मूषक वाहन पर चलने वाला कहा जाता है ।

भगवान् श्री गणेश का लम्बोदर अवतार सत्स्वरूप तथा ब्रह्मशक्ति का धारक है, भगवान लम्बोदर को क्रोधासुर का वध करने वाला तथा मूषक वाहन पर चलने वाला कहा जाता है । कथा:- एक बार भगवान विष्णु के मोहिनी रुप को देखकर भगवान शिव कामातुर हो गये । जब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप का त्याग किया तो कामातुर भगवान् शिव का मन दुखी हो गया । उसी समय उनका शुक्र धरती पर स्खलित हो गया । उससे एक प्रतापी काले रंग का असुर पैदा हुआ। उसके नेत्र तांबे की तरह चमकदार थे । वह असुर शुक्राचार्य के पास गया और उनके समक्ष अपनी इच्छा प्रकट की । शुक्राचार्य कुछ क्षण विचार करने के बाद उस असुर का नाम क्रोधासुर रखा और उसे अपनी शिष्यता से अभिभूत किया । फिर उन्होंने शम्बर दैत्य की रूपवती कन्या प्रीति के साथ उसका विवाह कर दिया । एक दिन क्रोधासुर ने आचार्य के समक्ष हाथ जोड़कर कहा - ‘मैं आप की आज्ञा से सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों पर विजय प्राप्त करना चाहता हूँ । अत: आप मुझे यश प्रदान करने वाला मन्त्र देने की कृपा करें ।’ शुक्राचार्य ने उसे सविधि सूर्य-मन्त्र की दीक्षा दी।

       क्रोधासुर शुक्राचार्य की आज्ञा लेकर वन मे चल गया । वहाँ उसने एक पैर पर खड़े होकर सूर्य-मन्त्र का जप किया । उस धैर्यशाली दैत्य ने निराहार रह कर वर्षा, शीत और धूप का कष्ट सहन करते हुए कठोर तप किया । असुर के हजारों वर्षो की तपस्या के बाद भगवान सूर्य प्रकट हुए । क्रोधासुर ने उनका भक्ति पूर्वक पूजन किया । भगवान सूर्य को प्रसन्न देख कर उसने कहा- ‘प्रभो ! मेरी मृत्यु न हो । मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों को जीत लूँ । सभी योद्धाओं में श्रेष्ठ सिद्ध होऊँ ।’ तथास्तु ! कहकर भगवान सूर्य अन्तर्धान हो गये ।

       घर लोटकर क्रोधासुर ने शुक्राचार्य के चरणों में प्रणाम किया । शुक्राचार्य ने उसका आवेश्पुरी में दैत्यों के राजा के पद पर अभिषेक कर दिया । कुछ दिनों के बाद उसने असुरों से ब्रह्माण्ड विजय की इच्छा व्यक्त की । असुर बड़े प्रसन्न हुए । विजय यात्रा प्रारम्भ हुई । उसने पृथ्वी पर सहज ही अधिकार कर लिया । इसी प्रकार वैकुण्ठ और कैलाश पर भी उस महादैत्य का राज्य स्थापित हो गया । क्रोधासुर ने भगवान सूर्य के सूर्य लोक को भी जीत लिया । वरदान देने के कारण उन्होंने भी सूर्यलोक का दुखी ह्रदय से त्याग कर दिया ।

      अत्यंत दुखी देवताओं और ऋषियों ने आराधना की । इससे संतुष्ट होकर लम्बोदर प्रकट हुए । उन्होंने कहा - ’देवताओं और ऋषियों ! मैं क्रोधासुर का अहंकार चूर्ण कर दूंगा । आप लोग निश्चिंत हो जायें ।

       लम्बोदर के साथ क्रोधासुर का भीषण संग्राम हुआ । देवगण भी असुरों का संहार करने लगे । क्रोधासुर के बड़े - बड़े योद्धा युद्ध भूमि में आहत होकर गिर पड़े । क्रोधासुर दुखी होकर लम्बोदर के चरणों में गिर गया तथा उनकी भक्ति भाव से स्तुति कर ने लगा । सहज कृपालु लम्बोदर ने उसे अभयदान दे दिया । क्रोधासुर भगवान लम्बोदर का आशीर्वाद और भक्ति प्राप्त कर शान्त जीवन लिए पाताल चला गया । देवता अभय और प्रसन्न होकर भगवान लम्बोदर का गुणगान करने लगे ।

६. विकट:


विकटो नाम विख्यातः कामासुर्विदाहकः |
मयुरवाहनश्चायं सौरब्रह्मधरः स्मृतः ||

भगवान् श्री गणेश का श्री विकटावतार सौरब्रह्म का धारक है, यह यह कामासुर का वध करने वाला कहा जाता है। इनका वाहन मयूर(मोर) है ।

एक बार भगवान विष्णु जब जलन्धर के वध हेतु वृंदा का तप नष्ट करने पहुंचे तो उसी समय उनके शुक्र से एक अत्यंत तेजस्वी असुर पैदा हुआ । वह कामाग्नि से पैदा हुआ था इसीलिए उसका नाम कामासुर हुआ । वह दैत्यगुरु शुक्राचार्य से दीक्षा प्राप्त करके भगवान् शिव के पंचाक्षरी मंत्र का जाप करते हुए कठोर तपस्या की अन्न, जल त्याग दिया शरीर जीर्ण शीर्ण हो गया । तपस्या के पूर्ण होने पर उसे भगवान् शिव के दिव्य दर्शन प्राप्त हुए तथा शिव जी से ब्रह्माण्ड का राज्य, शिवभक्ति तथा म्रत्युन्जयी होने का वरदान प्राप्त किया ।

     जब यह समाचार शुक्राचार्य को मिला तो उसने कामासुर को दैत्यों का अधिपति घोषित कर दिया और महिषासुर की पुत्री से उसका विवाह कर दिया । कामासुर ने एक एक सुन्दर सी नगरी को अपनी राजधानी बनाया । कामासुर ने रावण, शम्बर, महिष, बलि को अपनी सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त किया । कामासुर ने धीरे धीरे पृथ्वी के समस्त राजाओं को जीत लिया । उसके स्वर्ग पर भी आक्रमण कर दिया । कामासुर ने स्वर्ग के समस्त देवताओं को भी जीत लिया । 

वरदान के बल पर कामासुर ने तीनो लोको पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया । चारो तरफ छल कपट का साम्राज्य स्थापित हो गया । धर्म कर्म सब नष्ट हो गये । सभी देवी, देवता, ऋषि, मुनि दर दर भटकने लगे ।

      महर्षि मुद्गल के मार्ग दर्शन में सभी विस्थापित देवी, देवता, ऋषि, मुनि सभी श्री गणेश के विकट स्वरुप की भक्ति भावना से उपासना करने लगे । उपासना से प्रसन्न होकर श्री विकट गणेश प्रकट हुए । श्री विकट गणेश ने देवताओं से वरदान मांगने को कहा तब सभी देवी देवताओं ने कामासुर के अत्याचार के अंत की प्रार्थना की । विकट श्री गणेश ने तथास्तु कहा और चले गए ।

      उचित समय आने पर विकट श्री गणेश ने सभी देवी देवताओं के साथ मिलकर कामासुर की राजधानी को घेर लिया और कामासुर को युद्ध के लिए ललकारा । दोनों पक्षों में युद्ध शुरू हो गया घमासान युद्ध होने लगा । युद्ध में कामासुर के दोनों पुत्र मारे गए । भगवान् विकट ने कामासुर को चेताया की तूने श्री शिव के वरदान से अधर्म मचाया है मगर अब तेरा अंत निश्चित है अगर अपना जीवन चाहता है तो सभी देवी देवताओं से वैर छोड़ कर मेरी शरण में आजा अन्यथा अपनी म्रत्यु के लिए तैयार होजा ।

       कामासुर ने क्रोधित होकर श्री विकट पर अपनी गदा फ़ेंक कर प्रहार किया परन्तु कामासुर का प्रहार विफल हो गया । जब श्री विकट ने क्रोध भरी दृष्टि से कामासुर को तो वो मुर्छित हो गया और पृथ्वी पर गिर गया और उसकी समस्त शक्ति का छय होने लगा । कामासुर डर गया और विकट श्री गणेश के चरणों में अपना सिर रख कर क्षमा याचना करने लगा । युद्ध समाप्त हो गया और कामासुर ने अपने अस्त्र शस्त्र छोड़ दिए श्री विकट की शरण में आ गया श्री विकट ने भी कामासुर को माफ़ कर दिया । सब देवी देवता गण श्री मयुरेश भगवान् विकट की जय जय कार करने लगे । इस प्रकार पुनः धर्म की स्थापना हो गई ।

७. विघ्नराज:


विघ्नराजावताराश्च शेषवाहन उच्येत |
ममतासुर हन्ता स विष्णुब्रह्मेति वाचकः ||

भगवान् श्री गणेश का सप्तम विघ्नराज का है जो विष्णु ब्रह्म का धारक है, यह शेषनाग पर विराजमान है । श्री गणेश का यह अवतार ममतासुर का वध करने वाला है।

एक बार माँ पार्वती अपनी सखिओं से बात बात करते हुए जोर से हस पड़ीं । उनकी इस हसीं से एक पुरुष का जन्म हुआ पार्वती जी ने उस पुरुष का नाम ममतासुर रखा और उसे गणेश जी के षडक्षर मंत्र का ज्ञान दिया और आदेश दिया की तुम गणेश की भक्ति करो उसी से तुम्हे सब कुछ प्राप्त होगा । ममतासुर तप करने वन में चला गया वहां उसकी अन्य दैत्यों से भेंट हुई उन दैत्यों ने ममतासुर ने समस्त प्रकार की आसुरी शक्तियों को भलीभांति सीख लिया तत्पश्चात माँ की आज्ञानुसार ममतासुर गणेश जी की भक्ति लीन हो गया । सह्श्रो वर्षो तक तप करने के पश्चात गणेश जी प्रकट हुए तब ममतासुर ने गणेश जी से समस्त ब्रह्माण्ड का राज्य तथा युद्ध में आने वाले समस्त विघ्नों के न आने का वरदान माँगा । गणेश जी ने कहा की ये बहुत दुसाध्य वर माँगा है परन्तु मै तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ इसीलिए ये वर मै तुम्हे प्रदान अवश्य करूँगा । तथास्तु कह कर श्री गणेश अंतर्ध्यान हो गये ।

       तपस्या पूर्ण होने के पश्चात ममतासुर अपने मित्र शम्बर से मिला समाचार सुन कर शम्बर बहुत प्रसन्न हुआ । शुक्राचार्य ने ममतासुर को दैत्यराज घोषित कर दिया तथा शम्बर की पुत्री से उसका विवाह करवा दिया । कुछ समय पश्चात ममतासुर ने विश्वविजय की घोषणा कर दी और समस्त पृथ्वी पर आक्रमण करके इसकी शुरुआत भी कर दी । ममतासुर ने पृथ्वी तथा पाताल दोनों लोको को जीत लिया । फिर स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया । जल्द ही स्वर्ग भी ममतासुर के अधीन हो गया ।

       शिवलोक, विष्णुलोक, ब्रह्मलोक सब बलशाली असुर के अधीन हो गए । चारो तरफ हा हा कार मच गया धर्म कर्म सब नष्ट हो ने लगा देवी देवता अपने स्थानों से विश्तापिथों की तरह दर दर भटकने लगे । यज्ञ एवं अनुष्ठान सब नष्ट भ्रष्ट हो गया ।

         सभी देवताओं ने इस विपत्ति के समाधान हेतु श्री विघ्नराज की उपासना की । कठोर तपस्या के पश्चात श्री विघ्नराज प्रकट हुए । सभी देवी देवताओं ने श्री विघ्नराज से ममतासुर के अत्याचारों से मुक्ति तथा धर्म के उद्धार के लिए प्रार्थना की । श्री विघ्नराज ने सभी देवी देवताओं को चिंतामुक्त होने का आश्वासन दिया तथा श्री नारद को अपना दूत बनाकर ममतासुर के पास भेजा ।

        नारद ने ममतासुर से कहा की तुम अत्याचार और अधर्म का मार्ग छोड़ कर विघ्नराज श्री गणेश की शरण में आ जाओ अन्यथा तुम्हारा सर्वनाश निश्चित है । शुक्राचार्य ने भी ममतासुर को यही यही समझाया की विघ्नराज से वैर करना उचित नहीं परन्तु घमण्डी मुर्ख असुर कदापि न माना और उसकी इस मुर्खता से श्री विघ्नराज क्रोधित हो गए । विघ्नराज ने अपना पुष्प कमल असुर सेना में छोड़ दिया उसकी गंध से समस्त असुर सेना मुर्छित और शक्तिहीन हो गई तब ममतासुर पत्ते की भांति थर थर कांपने लगा और श्री विघ्नराज के चरणों में गिर गया । उनकी स्तुति करने लगा उनसे क्षमा याचना करने लगा । दयालु श्री विघ्नराज ने ममतासुर को क्षमा कर दिया और शांत एवं सहज जीवन जीने के लिए पाताल भेज दिया । इस प्रकार एक बार पुनः धर्म की स्थापना हुई और चारो तरलगी फ श्री विघ्नराज गणेश की जय जयकार होने लगी ।

८. धूम्रवर्ण:


धुम्रवर्णावतारश्चाभिमानासुरनाशकः ।
आखुवाहन एवासौ शिवात्मा तु स उच्येत ||

भगवान् श्री गणेश का अष्टम अवतार धूम्रवर्ण श्री गणेश का है जो शिव तत्व का धारक है या शिव तत्त्व स्वरुप है , धूम्रवर्ण श्री गणेश मूषक वाहन पर विराजमान हैं । श्री गणेश का यह अवतार अभिमानासुर का वध करने वाला है।

एक बार श्री ब्रह्मा जी सूर्य देव को कर्म अध्यक्ष का पद दिया । सूर्यदेव पद के प्राप्त होते ही अहम् भाव से ग्रस्त हो गए । अक बार सूर्य देव को छींक आ गई उससे एक विशाल बलशाली दैत्य अहंतासुर प्रकट हुआ । दैत्य होने के कारण वह शुक्राचार्य का शिष्य बना । दैत्यगुरु ने अहंतासुर को श्री गणेश के मंत्र की दीक्षा दी । अहंतासुर ने वन में जाकर श्री गणेश की भक्ति भाव से पूर्ण निष्ठा से कठोर तपस्या करने लगा । हजारो वर्ष व्यतीत होने के पश्चात भगवान श्री गणेश प्रकट हुए और अहंतासुर से वर मांगने को कहा । अहंतासुर ने श्री गणेश के सामने ब्रह्माण्ड के राज्य के साथ साथ अमरता और अजेय होने का वरदान माँगा । श्री गणेश वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गये ।

     अपने शिष्य अहंतासुर की सफलता का समाचार पाकर शुक्राचार्य प्रसन्न हो गये और अहंतासुर को दैत्योंका राजा घोषित कर दिया । अहंतासुर राज्य करने लगा उसका विवाह भी हो गया और कुछ वर्षोपरांत दो पुत्र प्राप्त हुए।

अहंतासुर ने एकबार अपने ससुर तथा अपने गुरु के साथ विश्वविजय की योजना बनाई । अपने गुरु और ससुर से आज्ञा प्राप्त करके विश्वविजय का कार्य प्रारम्भ कर दिया । युद्ध प्रारम्भ हो गया चारो तरफ मार काट होने लगी । सर्वत्र हा हा कार मच गया । पृथ्वी अहंतासुर के अधीन हो गई । अहंतासुर ने स्वर्ग पर भी आक्रमण कर दिया दिया देवता भी उसके समक्ष ज्यादा न टिक पाए अति शीघ्र स्वर्ग पर भी अहंतासुर का अधिकार हो गया । धर्म कर्म सब समाप्त होने लगा । पाताल में नागलोक में सर्वत्र अहंतासुर का राज्य हो गया और सर्वत्र मार काट हां हां कार होने लगा । समस्त देवी देवता विस्थापित होकर दर दर भटकने लगे ।

       असहाय देवताओं ने श्री शिव जी से सलाह लेकर श्री गणेश की उपासना की सैकड़ो वर्षो तक कठोर तप करने के पश्चात श्री गणेश प्रकट हुए । सभी देवी देवताओं ने श्री गणेश को समस्त व्यथा सुनाइ तब श्री गणेश ने सभी को उनके कष्टों को दूर करने का वचन दिया ।

धूम्रवर्ण श्री गणेश ने देवर्षि नारद के माध्यम से अहंतासुर के पास समाचार भेजा कि वह श्री धूमवर्ण गणेश की शरण में आ जाये और समस्त अत्याचारों को तत्काल बन्द कर दे और शांत जीवन व्यतीत करे । यह सुन कर दैत्यराज क्रोधित हो गया और उसने नारद को भला बुरा कहा और सन्देश का अनुशरण करने से इन्कार कर दिया । नारद निराश लौट गए । नारद से समस्त कहानी सुन कर श्री धूम्रवर्ण गणेश क्रोधित हो गए और अपना पाश असुर सेना पर छोड़ दिया ।

दिव्य पाश धीरे धीरे करके समस्त असुरो को म्रत्यु के छाया में भेजने लगा और चारो तरफ हाहाकार मच गया अहंतासुर शुक्राचार्य के समीप पहुंचा और समाधान पूछने लगा तो दैत्यगुरु ने तत्काल धूम्रवर्ण श्री गणेश की शरण में जाने का आदेश दिया अन्यथा प्राणों का बचना असम्भव है ।

     अहंतासुर तुरंत धूम्रवर्ण श्री गणेश की शरण में जाकर क्षमा याचना करने लगा और उनके चरणों में लेट गया । अहंतासुर ने अपने समस्त अत्याचारों के लिए क्षमा मांगी और श्री धूम्रवर्ण श्री गणेश की अनेक प्रकार से अर्चना की । दयालु श्री धूम्रवर्ण श्री गणेश प्रसन्न हो गए और अहंतासुर को क्षमा करके आदेश दिया की जहाँ भी मेरी पूजा न होती हो तुम वहां जाकर रहो । मेरे भक्तो को कभी भी कष्ट देने का प्रयास न करना और अपने समस्त बिना कारण होरहे अत्याचारों को तत्काल बंद कर दो । अहंतासुर श्री धूम्रवर्ण गणेश को प्रणाम करके तत्काल उनके आदेश का पालन करने के लिए चला गया । सब देवी देवता श्री धूम्रवर्ण गणेश की जय जय कार करने लगे । पुनः चारो तरफ धर्म और कर्म की स्थापना हुई ।

Meaning:

The avatars of Ganesha convey intricate philosophical concepts associated with the creation of the world. Each of these incarnations depicts a stage of the Ultimate which leads to creation.

The Eight Incarnations of Lord Ganesha are mentioned in the Mudgala Purana, an Upapurana devoted exclusively to Lord Ganesha. The Lord defeats 8 weaknesses of humans in each form. These are arrogance, ego, desire, anger, greed, illusion, inebriation and jealousy.

1) Vakratunda:

The first incarnation is Vakratunda which means the One with the Curved Trunk. It is a personification of the form of Brahman. In the form of Vakratunda, Lord Ganesha defeated the demon of jealousy and envy, known as Matsaryasura. Thus, the Lord is considered as the destroyer of jealousy. In this incarnation, His vahana is a divine Lion.

2) Ekadanta

Ekadanta is the second incarnation of the Lord which denotes that the Lord has a Single Tusk. He is a manifestation of the essential nature of Brahman. The Padma Purana states that once Lord Parashurama visited Lord Shiva in Mount Kailash. But Ganesha prevented him from entering. Thus Parashurama became infuriated and threw his divine axe at Ganesha, who knew it was granted by his father Shiva. Thus He refused to stop the sacred weapon and allowed the axe to chop one of his tusks. Hence he was named Ekadanta. Ganesha later used this tusk to script the epic Mahabharata. He acted as a scribe to Sage Ved Vyas. A mouse is his mount or vahana in this avatar. In this incarnation, Lord Ganesha fought against the demon Madasura, who was the embodiment of conceit and arrogance.

3) Mahodara

The Mahodara incarnation is an embodiment of the wisdom of Brahman. In this form the Lord is depicted with a pot belly and His mount is a mouse (shrew). Mahodara is an amalgamation of Vakratunda and Ekadanta forms. He is born in this avatar to annihilate Mohasura, the demon of confusion and delusion. Later the demon became a devotee of the Lord.
According to legends, Mohasura was also known as Daitya Raja or the King of the Asuras. He was a devotee of Surya Deva and dominated the three Lokas or worlds. All the sages, deities and gods were terrified of him. Then Lord Surya told the gods and sages to pray to Mahodara. Lord Ganesha was pleased with the worship and devotion of the sages and decided to eliminate Mohasura.
Lord Vishnu and Shukracharya advised Mohasura to surrender and pray to Mahodara. Eventually the demon surrendered to the Lord and praised him with utmost devotion. Mohasura asked for His forgiveness and promised to follow the path of righteousness. Lord Ganesha became pleased with his devotion and instructed him to return to Pataal Loka. All the sages and gods were relieved and praised Lord Mahodara.

4) Gajanana

The Gajanana incarnation is equivalent to the Mahodara avatar. Gajanana means the Lord with an elephant head. The combination of an elephant head with a human body is one of the unique physical features of Lord Ganesha. In this avatar, the Lord defeated the demon of greed, Lobhasura, who was the son of Lord Kuber. Gajanana mounts a mouse in this incarnation.

5) Lambodara

The Lambodara incarnation of Ganesha is considered to be similar to Adi-Shakti, the pure power of Brahman. Lambodara, also known as Lambodar, refers to the lord as an elephant headed deity with a large stomach. The divine mouse, Krauncha, is portrayed as His vahana in this avatar. Lord Ganesha incarnated as Lambodara with the objective to eradicate the demon of anger known as Krodhasura.

6) Vikata

In the sixth incarnation of Vikata, Lord Ganesha is considered to be a form of Surya. Vikata, meaning abnormal form, is a ferocious and dreadful deity. He possesses the body of a human with a head of an elephant. In this incarnation, a divine peacock serves as His vahana. Vikata is a manifestation of the illuminating nature of Brahmin. The Lord incarnated as Vikata to eradicate Kamasura, the demon of lust.

7) Vighnaraja

Vighnaraja is the seventh avatar of Lord Ganesha and is a personification of the preserving nature of Brahmin. Ganesha is equivalent to Lord Vishnu in this form. Shesha or Shesha Naga, the divine serpent, is his mount in this incarnation. Lord Ganesha appears as Vighnaraja to defeat, the demon of ego and possessiveness, Mamasura.

8) Dhumravarna

The eighth and last incarnation of Lord Ganesha is Dhumravarna, which depict the Lord in a grey coloured form. It is an embodiment of the destructive nature of Brahmin. His mount is a horse in this incarnation. As Dhumravarna, Lord Ganesha is equivalent to Lord Shiva. Dhumravarna is born with the objective to defeat the demon of self-infatuation, pride and attachment known as Abhimanasura or Ahamkarasur.! 

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