देहे पतिनि का रक्षा, यशो रक्ष्यमपात्तवत्।
नर: पतितवनयोऽपि, यश: कायेन जीवति ॥
अर्थ : " अवश्य नष्ट होने वाले शरीर के विषय मे रक्षा की चिन्ता क्या करना ? अपितु नष्ट न होनेवाले यश की चिंता करनी चाहिये । शरीर नष्ट होने पर भी मनुष्य यशरूपी शरीर से जीवित रहता है। "
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